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Monday, January 17, 2011

वन भी पावन हुआ करते थे--------------------------------------विश्व मोहन तिवारी, पूर्व एयर वाइस मार्शल

आधुनिक विकास के नाम पश्चिमी मशीनीकरण स्वचालित अँधानुकरण से सृजन नहीं गैस उत्सर्जन होता है!पर्यावरण के संरक्षण हेतु जुटें-तिलक



रामायण आदिकवि वाल्मीकि का प्रथम काव्य है-महाकाव्य है। उसमें हम पाते हैं कि ऋषिगण गहन वनों में आश्रम बनाकर रहते थे। ऋषिगण जानवरों का शिकार नहीं करते थे और न उनसे अपनी रक्षा करने के लिए शस्त्रों का प्रयोग करते थे। उनका शांत जीवन तथा यज्ञ की अन्नि ही हिंस्त्र पशुओं से उनकी रक्षा करने में समर्थ थी। उन्होंने राम को अपनी रक्षा करने के लिए आमंत्रित किया था। रक्षा का वह आमंत्रण वनों के हिंस्त्र पशुओं के आक्रमणों से नहीं, वरन् राक्षसों से रक्षा करने के लिए था। ऋषियों में सिंह, बाघ आदि का भय नहीं था। उनके लिए स्वयं वन निर्भय क्षेत्र थे, भय था तो किंतु वनचरों का नहीं वरन आत्यंतिक भोगवादी राक्षसों का था। किंतु वन को भयंकर असभ्य तथा ‘अराजक’ कहने की पंरपरा अंग्रेजी साहित्य ने हमें दी है। उनके वर्णनों में जंगल असभ्यता का ही प्रतीक है। प्रकृति पर विजय कर उसका शोषण करना उनकी संस्कृति का अंग है। रुडयार्ड किपलिंग की कविता ‘नाउ दिस इज़ द लॉ ऑफ जंगल-ऐज ओल्ड ऐंड टू ऐज़ द स्काई’ ‘(द लॉ ऑफ द जंगल’) इस दृष्टि से भी पठनीय है।

यह अधिक पुरानी घटना नहीं है। अंग्रेजों के भारत में अपना शासन स्थापित करने तक, अर्थात लगभग 150 वर्षों पहले तक सारे भारत में, विशेषकर पूर्वोतर में वनों की पूजा-अर्चना, उन्हें पावन मानकर की जाती थी। यह भी विचित्र बात है कि जहां वन ‘तरु तमाल तरुवर बहु छाए’ भी अधिक घने हों, इतने सघन कि दोपहर में भी उनके अंदर संध्या-सा अंधेरा रहता हो, वहां वनों को पावन मानने की क्या आवश्यकता थी? मरुस्थल हों, पठार हों या मैदान हों जहां वन, विशेषकर सघन वन कम हों, वहां उन्हें पूजा जाए तो बात समझ में आती है। वन समृद्ध पश्चिमी घाट में कुछ सघन वन थे, वहां भी पावन वन मिलते थे। अभी अपवाद कुछ बचे हैं जैसा कि मैंने ‘भीमाशंकर’ में देखा था। भीमाशंकर पुणें के निकट सह्याद्रि पर्वतश्रेणियों में अत्यंत सुरम्य वनाच्छादित तीर्थस्थल है। भारत में शिवलिंग वाले बारह अत्यंत पूज्यस्थल हैं, भीमाशंकर उनमें से एक है।

भीमाशंकर के पावन वन में मैने संध्या में भी वह अंधकार नहीं देखा जो मेघालय के ‘माव फलांग’ नामक पावन वन (‘की लावलिंग्डो’) में दोपहर को देखा था। इसका अर्थ होता है-पुजारी (लिंग्डो) का जंगल (लाव)। अर्थात वहां बिना उसके पुजारी की अनुमति के प्रवेश भी नहीं करना चाहिए। आज के जनतंत्र युग में पुजारी से अनुमति न लेकर मैंने माव फलांग ग्राम परिषद से ‘लावलिंग्डो’ में जाने की अनुमति ली। मुझे बताया गया था कि यह अनुमति दुर्लभ ही है। नियत समय पर दोपहर-दो बजे हम एक पुजारी जी (लिंग्डो) के पास पहुंचे और उनके साथ हमने वन में प्रवेश किया। प्रेवश के पहले पावन वन की सीमा पर उस पुजारी ने पूजा की। हम लोग संभवतः 30-40 कदम ही भीतर पहुंचे होंगे कि शीतलता के कारण कुछ ज़मीन को देखते हुए चलना पड़ रहा था। और वहां वृक्षों पर असंख्य लताएं लिपटी थीं तथा वंषतोत्सव-सा मनाने के लिए झूल रही थीं। ये विशेष लताएं ही पूर्वोतर वनों की प्रसद्धि बेंत हैं जिनसे विभिन्न हल्के और टिकाउ फर्नीचर बना करते हैं। अधिकांश वृक्षों को वन-देवता ने अन्यत्र दुर्लभ आर्किड (जीवंती) पुष्पों से सजाया हुआ था। जीवंती पुष्पों की इतनी रंगीन-छटा, इतने विचित्र प्रकार मैंने केवल आर्किडेरियमों में ही देखे थे, अन्य वनों में नहीं। चलते समय नीचे-उपर सभी तरफ देखकर चलना पड़ रहा था। जंगलों में बहुधा जो पगडंडियां होती हैं, उनका नामोनिशान न था। आजू-बाजू और उपर-नीचे सांपों, बिच्छुओं पर निगरानी रखते हुए चलना था। मुझे भय कम ही था क्योंकि पुजारी जी आगे-आगे धीरे-धीरे चल रहे थे।

वन के विभिन्न वृक्षों ने उस वन को बहुमंजिला बना दिया था। उन वृक्षों में चीड़ सरीखे सुइयाकार पते वाले वृक्ष थे तो चौड़े पतों वाले वृक्ष भी। वन के भूतल पर वृक्षों से स्वाभाविक रूप से गिरी लकड़ियां बिखरी पड़ी थीं। उन पर तरह-तरह की काई और फुदों ने अपने अखंड साम्राज्य के मानो घोषणापत्र (पोस्टर) लगा रखे थे। यह वन इतना पावन है कि इस वन से इस तरह टूटी पड़ी लकड़ियों, पतों, फलों आदि को भी-बाहर नहीं ले जा सकते। यह वन केवल प्रकृति के साथ रहता है। इसीलिए यह पावन है और इसका दोहन करना निषेध है। ऐसे वनों के अध्ययन से न जाने कौन कौन से प्रकृति के रहस्य खुल सकते हैं। प्रकृति के साथ रहकर ये प्रकृति की शक्ति को बढ़ाते हैं। मेरे ह्दय पर उस पावन वन का दृश्य तथा उसकी आदिम गंध हमेशा के लिए अंकित हो गई। वह इसलिए भी अमूल्य है कि अब वह पावन वन आज के भोगवादी समय में शायद जीवित न बचे। अंग्रेजों के आने के पहले ऐसे अनेकानेक पावन वन थे। इस पावन दर्शन के पूर्व मेरे मन में केवल पीपल, वटवृक्ष आदि पावन वृक्षों की छवि थी। भोगार्थ वृक्षों से पावन वृक्षों और फिर पावन वनों तक की रक्षा, पूजा का विकास कितना बड़ा विकास है, इसे पाश्चात्य सभ्यता को समझने में कम से कम तीन हजार वर्षों से अधिक लगे हैं।

उतर-पूर्व विशेषकर मेघालय में पावन वनों के पांच प्रकार हैं। ऐसा नहीं कि वहां के लोग वनों को केवल पूजना ही जानते थे। पावन वनों की दूसरी श्रेणी है ‘की लाव किंटांग’ जिसका अर्थ है ‘पावन वन’। इन वनों में धार्मिक कृत्यों आदि की अनुमति रहती है। उनका प्रकृति के साथ संबंध धर्म पर आधारित है। पावन वनों की तीसरी श्रेणी का नाम है ‘की लाव नियम’ खासी भाषा में नियम का अर्थ है धार्मिक नियम। अर्थात इस वन की उपज का उपयोग धार्मिक कृत्यों के लिए हो सकता है। चौथी श्रेणी है ‘की लाव एडांग’, अर्थात ‘विधि (कानून) वन’। इनका उपयोग सामाजिक नियमों के अनुसार हो सकता है। और पांचवी श्रेणी है ‘की लाव श्नांग’ अर्थात ‘वन स्थली’। इस नाम से ही लगता है कि आप इसमें आनंद ले सकते हैं। बस, आपको इसका उचित उपयोग करना है, उसको जीवंत बनाकर रखना है।

ऐसे वनों की अर्थात पूजा वाले क्षेत्रों के वन भी उतने ही सघन हुआ करते थे ओर इन वृक्षों की लकड़ी भी उच्च गुणवता की होती थी। अंग्रेज़ लोगों को उन जीवंत वनों में स्वर्णधातु ही दिखी। उन्होंने बाकी वनों को काटने के साथ-साथ पावन वनों को भी काटना चाहा। जब उन लोगों न पावन वनों के काटने का विरोध किया तब अंग्रेजों ने कारण पूछा। उन्होंने बताया कि पावन वनों के काटने से उनके वन-देवता अप्रसन्न हो जाएंगे और वह सभी लोगों के लिए हानिकारक होगा। अंग्रेजों ने कहा कि कोई वन-देवता नहीं होते। और यह सिद्ध करने के लिए उन्होंने पावन वन के वृक्षों को काट डाला। उन्होंने गांव वालों से कह भी दिया कि देखना किसी को कोई नुकसान नहीं होगा। और प्रत्यक्षः कोई नुकसान हुआ भी नहीं। अंग्रेजों ने धड़ल्ले से वनों की कटाई जारी रखी। अधिकांश पहाड़ियां उन्होंने वृक्ष-विहीन कर दी। और अब स्थानीय लोग भी इसमें शामिल हो गए। ईसाई धर्म के प्रचार को भी इससे बढ़त मिली। इसाइयों ने तो यह भी कह दिया कि ईसाइयों के भगवान उनके देवताओं से अधिक शक्तिशाली हैं।

कुछ वर्षों के बाद ही ब्रह्म्पुत्र में अधिक भयंकर बाढ़ें आने लगीं। चेरापूंजी जो विश्व में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र था, अब दूसरे स्थान पर आ गया। चेरापूंजी के आसपास की पहाड़ियां तो जैसे एकदम नंगी कर दी गई थी। वे लोग अपने धर्म की बातें तथा नियम की बातें भी भूलने लगे। नए वृक्षों को नहीं लगाया। अब वृक्ष लगना भी कठिन हो गया क्योंकि जो उर्वर मिट्टी की परत उन पहाड़ियों पर थी, अब वर्षा की तेज बूंदों से धुलकर बह गई थी पहले जब वन वृक्षों से समृद्ध थे तब वर्षा की बूंदों की तेजी को वृक्ष कम कर देते थे। उस मिट्टी को वृक्षों की जड़ें पकड़कर रखती थीं। अब वे पहाड़ियां न केवल वृक्ष-विहीन हैं, वरन् नंगी खड़ी हैं-अब मिट्टी नहीं पत्थर या चट्टानें ही चट्टानें दिखती हैं। यहां वर्षा लगभग 6 से 8 माह तक होती है। क्या कोई विश्वास करेगा कि जिस चेरापूंजी में प्रतिवर्ष लगभग 1250 सें.मी. वर्सा तो अब भी होती है, वहां, पानी का अकाल पड़ जाएगा? चेरापूंजी में कोई 3-4 माह पानी का अब अकाल रहता है। सब झरने बारिश के बाद ही सूख जाते हैं। यही झरने पहले वर्षभर झरझर कर वन देवता की स्तुति करते रहते थे। गांव इन्हीं के आसपास बसे हैं। अब वहां के लोगों को पानी लाने के लिए बहुत दूर जाना पड़ जाता है, वहां कोई सरोवर बचा नहीं रह गया है। वनों के कटने से पूरे पूर्वोतर में अब भयंकर और अधिक संख्या में बाढ़ें आती हैं। पूरे पूर्वोतर में पानी का अकाल पड़ता है। वर्षा भी कम हो गई है। बाढ़ों में अब उपजाउ मिट्टी के स्थान पर रेत, पत्थर तथा चट्टानें आती हैं। पूरे पूर्वोतर में झरने सूख चलें हैं। पहाड़ियां नग्न हो गई हैं। नदी के तट भी उपजाउ हाने के स्थान पर रेतीले होते जा रहे हैं।

इस सब प्राकृतिक विनाश का कारण, निस्संदेह, वनों का अंधाधुंध कटना है; और नए वनों का उचित मात्रा में न लगाया जाना है। यह आज के पर्यावरण वैज्ञानिक भी मानते हैं। डेढ़ सौ वर्ष पहले पाश्चात्य वैज्ञानिकों को यह सब पता नहीं था। हमारे ऋसियों ने न जाने कब से प्रकृति का यह गूढ़ रहस्य समझकर पर्यावरण की रक्षा के नियम (धार्मिक) बनाकर समाज में रच दिए थे। हमारी नदियों की पूजा कोई अंधी प्रकृति की पूजा नहीं थी। यह परंपरा सारे भारत में प्रचलित थी। कश्मीर की एक प्रसिद्ध कहावत है: ‘अन्न पोसि तेलि, वन पोसि येलि।’ वह हमारे द्वारा प्रकृति की रक्षा का हमारा धार्मिक कर्तव्य था। हम तब कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहते थे कि वन-देवता अप्रसन्न हो जाएं।

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