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Saturday, March 19, 2011

होली का इतिहास (बुराइयों के अंत का प्रतीक)

होली का इतिहास (बुराइयों के अंत का प्रतीक)


होली
होली
होली के अवसर पर गुलाल से रंगीन चेहरा।


होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से 2 दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंगअबीर-गुलाल इत्यादि लगते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से मित्र बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का क्रम दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।[१]
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।[२] राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन सेफाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।[३] यह एक अत्यंत प्राचीन धार्मिक, सामाजिक उत्सव है जिसका उद्देश्य : धार्मिक निष्ठा, व उत्सव, मनोरंजन द्वारा सांस्कृतिक परम्पराओं को जीवित रखना है।  
होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका[४] नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।
राधा-श्याम गोप और गोपियो की होली
अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की चित्रावली हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है।[५] शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।[६] अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।[७] मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।[८]
भगवान नृसिंह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।[९] प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।[१०]
प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढीराधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।[११] कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।[१२]

परंपराएँ

होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं, और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। । वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।[१३]

होलिका दहन
होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए[१४] जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में 7 भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से 7 बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।[१४] लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।
सार्वजनिक होली मिलन
होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजीभांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने के कारण से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता ।

विशिष्ट उत्सव

भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली[१५] काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा औरवृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी[१६] में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा[१७] चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी[१८] में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो[१९] में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला[२०] में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई[२१] मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग[२२] में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी[२३] में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया[२४], जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ[२५] जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली[२६] में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।

साहित्य में होली

प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली[क] तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारविमाघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्यपृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदासरहीमरसखानपद्माकर[ख] , जायसीमीराबाईकबीर और रीतिकालीन बिहारीकेशवघनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं।[२७] इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।[२८] सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलियाअमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं।[६]आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँतेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय होतथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सवयश चोपड़ा की सिलसिलावी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।[२९]

संगीत में होली

भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हाँलाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल औरठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं।बसंतबहारहिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैतीदादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली हैं, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहां ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है,अपने महबूब के घर रंग है री।[३०] इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता हैं।[३१] भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।

आधुनिकता का रंग

होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, किन्तु होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते है। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं।[३२] किन्तु इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं।[३३] रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं।[३४] होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अनुमान गत वर्ष होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है  से लगाया जा सकता है।[३५]

आधुनिक विकास के नाम पश्चिमी मशीनीकरण स्वचालित अँधानुकरण से सृजन नहीं गैस उत्सर्जन होता है!पर्यावरण के संरक्षण हेतु जुटें-तिलक

Monday, January 17, 2011

वन भी पावन हुआ करते थे--------------------------------------विश्व मोहन तिवारी, पूर्व एयर वाइस मार्शल

आधुनिक विकास के नाम पश्चिमी मशीनीकरण स्वचालित अँधानुकरण से सृजन नहीं गैस उत्सर्जन होता है!पर्यावरण के संरक्षण हेतु जुटें-तिलक



रामायण आदिकवि वाल्मीकि का प्रथम काव्य है-महाकाव्य है। उसमें हम पाते हैं कि ऋषिगण गहन वनों में आश्रम बनाकर रहते थे। ऋषिगण जानवरों का शिकार नहीं करते थे और न उनसे अपनी रक्षा करने के लिए शस्त्रों का प्रयोग करते थे। उनका शांत जीवन तथा यज्ञ की अन्नि ही हिंस्त्र पशुओं से उनकी रक्षा करने में समर्थ थी। उन्होंने राम को अपनी रक्षा करने के लिए आमंत्रित किया था। रक्षा का वह आमंत्रण वनों के हिंस्त्र पशुओं के आक्रमणों से नहीं, वरन् राक्षसों से रक्षा करने के लिए था। ऋषियों में सिंह, बाघ आदि का भय नहीं था। उनके लिए स्वयं वन निर्भय क्षेत्र थे, भय था तो किंतु वनचरों का नहीं वरन आत्यंतिक भोगवादी राक्षसों का था। किंतु वन को भयंकर असभ्य तथा ‘अराजक’ कहने की पंरपरा अंग्रेजी साहित्य ने हमें दी है। उनके वर्णनों में जंगल असभ्यता का ही प्रतीक है। प्रकृति पर विजय कर उसका शोषण करना उनकी संस्कृति का अंग है। रुडयार्ड किपलिंग की कविता ‘नाउ दिस इज़ द लॉ ऑफ जंगल-ऐज ओल्ड ऐंड टू ऐज़ द स्काई’ ‘(द लॉ ऑफ द जंगल’) इस दृष्टि से भी पठनीय है।

यह अधिक पुरानी घटना नहीं है। अंग्रेजों के भारत में अपना शासन स्थापित करने तक, अर्थात लगभग 150 वर्षों पहले तक सारे भारत में, विशेषकर पूर्वोतर में वनों की पूजा-अर्चना, उन्हें पावन मानकर की जाती थी। यह भी विचित्र बात है कि जहां वन ‘तरु तमाल तरुवर बहु छाए’ भी अधिक घने हों, इतने सघन कि दोपहर में भी उनके अंदर संध्या-सा अंधेरा रहता हो, वहां वनों को पावन मानने की क्या आवश्यकता थी? मरुस्थल हों, पठार हों या मैदान हों जहां वन, विशेषकर सघन वन कम हों, वहां उन्हें पूजा जाए तो बात समझ में आती है। वन समृद्ध पश्चिमी घाट में कुछ सघन वन थे, वहां भी पावन वन मिलते थे। अभी अपवाद कुछ बचे हैं जैसा कि मैंने ‘भीमाशंकर’ में देखा था। भीमाशंकर पुणें के निकट सह्याद्रि पर्वतश्रेणियों में अत्यंत सुरम्य वनाच्छादित तीर्थस्थल है। भारत में शिवलिंग वाले बारह अत्यंत पूज्यस्थल हैं, भीमाशंकर उनमें से एक है।

भीमाशंकर के पावन वन में मैने संध्या में भी वह अंधकार नहीं देखा जो मेघालय के ‘माव फलांग’ नामक पावन वन (‘की लावलिंग्डो’) में दोपहर को देखा था। इसका अर्थ होता है-पुजारी (लिंग्डो) का जंगल (लाव)। अर्थात वहां बिना उसके पुजारी की अनुमति के प्रवेश भी नहीं करना चाहिए। आज के जनतंत्र युग में पुजारी से अनुमति न लेकर मैंने माव फलांग ग्राम परिषद से ‘लावलिंग्डो’ में जाने की अनुमति ली। मुझे बताया गया था कि यह अनुमति दुर्लभ ही है। नियत समय पर दोपहर-दो बजे हम एक पुजारी जी (लिंग्डो) के पास पहुंचे और उनके साथ हमने वन में प्रवेश किया। प्रेवश के पहले पावन वन की सीमा पर उस पुजारी ने पूजा की। हम लोग संभवतः 30-40 कदम ही भीतर पहुंचे होंगे कि शीतलता के कारण कुछ ज़मीन को देखते हुए चलना पड़ रहा था। और वहां वृक्षों पर असंख्य लताएं लिपटी थीं तथा वंषतोत्सव-सा मनाने के लिए झूल रही थीं। ये विशेष लताएं ही पूर्वोतर वनों की प्रसद्धि बेंत हैं जिनसे विभिन्न हल्के और टिकाउ फर्नीचर बना करते हैं। अधिकांश वृक्षों को वन-देवता ने अन्यत्र दुर्लभ आर्किड (जीवंती) पुष्पों से सजाया हुआ था। जीवंती पुष्पों की इतनी रंगीन-छटा, इतने विचित्र प्रकार मैंने केवल आर्किडेरियमों में ही देखे थे, अन्य वनों में नहीं। चलते समय नीचे-उपर सभी तरफ देखकर चलना पड़ रहा था। जंगलों में बहुधा जो पगडंडियां होती हैं, उनका नामोनिशान न था। आजू-बाजू और उपर-नीचे सांपों, बिच्छुओं पर निगरानी रखते हुए चलना था। मुझे भय कम ही था क्योंकि पुजारी जी आगे-आगे धीरे-धीरे चल रहे थे।

वन के विभिन्न वृक्षों ने उस वन को बहुमंजिला बना दिया था। उन वृक्षों में चीड़ सरीखे सुइयाकार पते वाले वृक्ष थे तो चौड़े पतों वाले वृक्ष भी। वन के भूतल पर वृक्षों से स्वाभाविक रूप से गिरी लकड़ियां बिखरी पड़ी थीं। उन पर तरह-तरह की काई और फुदों ने अपने अखंड साम्राज्य के मानो घोषणापत्र (पोस्टर) लगा रखे थे। यह वन इतना पावन है कि इस वन से इस तरह टूटी पड़ी लकड़ियों, पतों, फलों आदि को भी-बाहर नहीं ले जा सकते। यह वन केवल प्रकृति के साथ रहता है। इसीलिए यह पावन है और इसका दोहन करना निषेध है। ऐसे वनों के अध्ययन से न जाने कौन कौन से प्रकृति के रहस्य खुल सकते हैं। प्रकृति के साथ रहकर ये प्रकृति की शक्ति को बढ़ाते हैं। मेरे ह्दय पर उस पावन वन का दृश्य तथा उसकी आदिम गंध हमेशा के लिए अंकित हो गई। वह इसलिए भी अमूल्य है कि अब वह पावन वन आज के भोगवादी समय में शायद जीवित न बचे। अंग्रेजों के आने के पहले ऐसे अनेकानेक पावन वन थे। इस पावन दर्शन के पूर्व मेरे मन में केवल पीपल, वटवृक्ष आदि पावन वृक्षों की छवि थी। भोगार्थ वृक्षों से पावन वृक्षों और फिर पावन वनों तक की रक्षा, पूजा का विकास कितना बड़ा विकास है, इसे पाश्चात्य सभ्यता को समझने में कम से कम तीन हजार वर्षों से अधिक लगे हैं।

उतर-पूर्व विशेषकर मेघालय में पावन वनों के पांच प्रकार हैं। ऐसा नहीं कि वहां के लोग वनों को केवल पूजना ही जानते थे। पावन वनों की दूसरी श्रेणी है ‘की लाव किंटांग’ जिसका अर्थ है ‘पावन वन’। इन वनों में धार्मिक कृत्यों आदि की अनुमति रहती है। उनका प्रकृति के साथ संबंध धर्म पर आधारित है। पावन वनों की तीसरी श्रेणी का नाम है ‘की लाव नियम’ खासी भाषा में नियम का अर्थ है धार्मिक नियम। अर्थात इस वन की उपज का उपयोग धार्मिक कृत्यों के लिए हो सकता है। चौथी श्रेणी है ‘की लाव एडांग’, अर्थात ‘विधि (कानून) वन’। इनका उपयोग सामाजिक नियमों के अनुसार हो सकता है। और पांचवी श्रेणी है ‘की लाव श्नांग’ अर्थात ‘वन स्थली’। इस नाम से ही लगता है कि आप इसमें आनंद ले सकते हैं। बस, आपको इसका उचित उपयोग करना है, उसको जीवंत बनाकर रखना है।

ऐसे वनों की अर्थात पूजा वाले क्षेत्रों के वन भी उतने ही सघन हुआ करते थे ओर इन वृक्षों की लकड़ी भी उच्च गुणवता की होती थी। अंग्रेज़ लोगों को उन जीवंत वनों में स्वर्णधातु ही दिखी। उन्होंने बाकी वनों को काटने के साथ-साथ पावन वनों को भी काटना चाहा। जब उन लोगों न पावन वनों के काटने का विरोध किया तब अंग्रेजों ने कारण पूछा। उन्होंने बताया कि पावन वनों के काटने से उनके वन-देवता अप्रसन्न हो जाएंगे और वह सभी लोगों के लिए हानिकारक होगा। अंग्रेजों ने कहा कि कोई वन-देवता नहीं होते। और यह सिद्ध करने के लिए उन्होंने पावन वन के वृक्षों को काट डाला। उन्होंने गांव वालों से कह भी दिया कि देखना किसी को कोई नुकसान नहीं होगा। और प्रत्यक्षः कोई नुकसान हुआ भी नहीं। अंग्रेजों ने धड़ल्ले से वनों की कटाई जारी रखी। अधिकांश पहाड़ियां उन्होंने वृक्ष-विहीन कर दी। और अब स्थानीय लोग भी इसमें शामिल हो गए। ईसाई धर्म के प्रचार को भी इससे बढ़त मिली। इसाइयों ने तो यह भी कह दिया कि ईसाइयों के भगवान उनके देवताओं से अधिक शक्तिशाली हैं।

कुछ वर्षों के बाद ही ब्रह्म्पुत्र में अधिक भयंकर बाढ़ें आने लगीं। चेरापूंजी जो विश्व में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र था, अब दूसरे स्थान पर आ गया। चेरापूंजी के आसपास की पहाड़ियां तो जैसे एकदम नंगी कर दी गई थी। वे लोग अपने धर्म की बातें तथा नियम की बातें भी भूलने लगे। नए वृक्षों को नहीं लगाया। अब वृक्ष लगना भी कठिन हो गया क्योंकि जो उर्वर मिट्टी की परत उन पहाड़ियों पर थी, अब वर्षा की तेज बूंदों से धुलकर बह गई थी पहले जब वन वृक्षों से समृद्ध थे तब वर्षा की बूंदों की तेजी को वृक्ष कम कर देते थे। उस मिट्टी को वृक्षों की जड़ें पकड़कर रखती थीं। अब वे पहाड़ियां न केवल वृक्ष-विहीन हैं, वरन् नंगी खड़ी हैं-अब मिट्टी नहीं पत्थर या चट्टानें ही चट्टानें दिखती हैं। यहां वर्षा लगभग 6 से 8 माह तक होती है। क्या कोई विश्वास करेगा कि जिस चेरापूंजी में प्रतिवर्ष लगभग 1250 सें.मी. वर्सा तो अब भी होती है, वहां, पानी का अकाल पड़ जाएगा? चेरापूंजी में कोई 3-4 माह पानी का अब अकाल रहता है। सब झरने बारिश के बाद ही सूख जाते हैं। यही झरने पहले वर्षभर झरझर कर वन देवता की स्तुति करते रहते थे। गांव इन्हीं के आसपास बसे हैं। अब वहां के लोगों को पानी लाने के लिए बहुत दूर जाना पड़ जाता है, वहां कोई सरोवर बचा नहीं रह गया है। वनों के कटने से पूरे पूर्वोतर में अब भयंकर और अधिक संख्या में बाढ़ें आती हैं। पूरे पूर्वोतर में पानी का अकाल पड़ता है। वर्षा भी कम हो गई है। बाढ़ों में अब उपजाउ मिट्टी के स्थान पर रेत, पत्थर तथा चट्टानें आती हैं। पूरे पूर्वोतर में झरने सूख चलें हैं। पहाड़ियां नग्न हो गई हैं। नदी के तट भी उपजाउ हाने के स्थान पर रेतीले होते जा रहे हैं।

इस सब प्राकृतिक विनाश का कारण, निस्संदेह, वनों का अंधाधुंध कटना है; और नए वनों का उचित मात्रा में न लगाया जाना है। यह आज के पर्यावरण वैज्ञानिक भी मानते हैं। डेढ़ सौ वर्ष पहले पाश्चात्य वैज्ञानिकों को यह सब पता नहीं था। हमारे ऋसियों ने न जाने कब से प्रकृति का यह गूढ़ रहस्य समझकर पर्यावरण की रक्षा के नियम (धार्मिक) बनाकर समाज में रच दिए थे। हमारी नदियों की पूजा कोई अंधी प्रकृति की पूजा नहीं थी। यह परंपरा सारे भारत में प्रचलित थी। कश्मीर की एक प्रसिद्ध कहावत है: ‘अन्न पोसि तेलि, वन पोसि येलि।’ वह हमारे द्वारा प्रकृति की रक्षा का हमारा धार्मिक कर्तव्य था। हम तब कोई भी ऐसा काम नहीं करना चाहते थे कि वन-देवता अप्रसन्न हो जाएं।

Saturday, September 11, 2010

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु  मैकाले व वामपंथियों से प्रभावित कुशिक्षा से पीड़ित समाज का एक वर्ग, जिसे देश की श्रेष्ठ संस्कृति, आदर्श, मान्यताएं, परम्पराएँ, संस्कारों का ज्ञान नहीं है अथवा स्वीकारने की नहीं नकारने की शिक्षा में पाले होने से असहजता का अनुभव होता है! उनकी हर बात आत्मग्लानी की ही होती है! स्वगौरव की बात को काटना उनकी प्रवृति बन चुकी है! उनका विकास स्वार्थ परक भौतिक विकास है, समाज शक्ति का उसमें कोई स्थान नहीं है! देश की श्रेष्ठ संस्कृति, परम्परा व स्वगौरव की बात उन्हें समझ नहीं आती! 
 किसी सुन्दर चित्र पर कोई गन्दगी या कीचड़ के छींटे पड़ जाएँ तो उस चित्र का क्या दोष? हमारी सभ्यता  "विश्व के मानव ही नहीं चर अचर से,प्रकृति व सृष्टि के कण कण से प्यार " सिखाती है..असभ्यता के प्रदुषण से प्रदूषित हो गई है, शोधित होने के बाद फिर चमकेगी, किन्तु हमारे दुष्ट स्वार्थी नेता उसे और प्रदूषित करने में लगे हैं, देश को बेचा जा रहा है, घोर संकट की घडी है, आत्मग्लानी का भाव हमे इस संकट से उबरने नहीं देगा. मैकाले व वामपंथियों ने इस देश को आत्मग्लानी ही दी है, हम उसका अनुसरण नहीं निराकरण करें, देश सुधार की पहली शर्त यही है, देश भक्ति भी यही है !
भारत जब विश्वगुरु की शक्ति जागृत करेगा, विश्व का कल्याण हो जायेगा !

आधुनिक विकास के नाम पश्चिमी स्वचालित मशीनीकरण
अँधानुकरण से सृजन नहीं, गैस उत्सर्जन प्रदूषण होता है!
लाखों पशुओं के वध का अवशेष भी तो प्रदूषणकारी होता है,
आइये सब मिलकर पर्यावरण के संरक्षण हेतु जुटें-तिलक